नवगोल्ड किस्म के सरसों की पैदावार 20 से 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान में की जाती है। इसकी खेती समस्त प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। परंतु, बलुई मृदा में इसकी बेहतरीन पैदावार होती है। इसके बीज की बुआई बीजोपचार करने के बाद ही करें, जिससे पैदावार काफी बेहतरीन होती है।
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नवगोल्ड किस्म के सरसों के उत्पादन हेतु सर्वप्रथम खेत को रोटावेटर के माध्यम से जोत लें। साथ ही, पाटा लगाकर खेत को एकसार करलें। साथ ही, इस बात का खास ख्याल रखें कि एकसार भूमि पर ही सरसों के पौधों का अच्छी तरह विकास हो पाता है।
नवगोल्ड किस्म की फसल में सिंचाई
नवगोल्ड किस्म के बीजों का निर्माण नवीन वैज्ञानिक विधि के माध्यम से किया जाता है। इस फसल को पूरी खेती की प्रक्रिया में बस एक बार ही सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। फसल में सिंचाई फूल आने के दौरान ही कर देनी चाहिए।
नवगोल्ड किस्म की खेती के लिए खाद और उर्वरक
नवगोल्ड किस्म के बीजों के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल अच्छा माना जाता है। इसके उत्पादन के लिए गोबर के खाद का इस्तेमाल करना चाहिए। मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश की मात्रा एवं फास्फोरस को संतुलन में रखना चाहिए।
सरसों की खेती के लिए खरपतवार का नियंत्रण
सरसों की खेती के लिए इसके खेत को समयानुसार निराई एवं गुड़ाई की जरूरत पड़ती है। बुवाई के 15 से 20 दिन उपरांत खेत में खर पतवार आने शुरू हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप खरपतवार नाशी पेंडामेथालिन 30 रसायन का छिड़काव मृदा में कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि इसमें लगने वाले प्रमुख रोग सफ़ेद किट्ट, चूणिल, तुलासिता, आल्टरनेरिया और पत्ती झुलसा जैसे रोग लगते हैं, तो आप फसलों पर मेन्कोजेब का छिड़काव कर सकते हैं। नवगोल्ड किस्म के सरसों में सामान्य किस्म के मुकाबले अधिक तेल का उत्पादन होता है। साथ ही, इसकी खेती के लिए भी अधिक सिंचाई एवं परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
विशेष बात यह है, कि इस संकर भिंडी को काफी कम जल की आवश्यकता होती है। किसानों ने बूंद- बूंद कर के सिंचाई करने की तकनीक से इस संकर भिंडी की खेती संपन्न की है। वर्तमान, समस्त किसानों के खेत में भिंडी की फसल लहलहाती दिख रही है। किसानों को यह आशा है, कि यदि मौसम ने उनका साथ दिया, तो वह भिंडी का अच्छा-खासा उत्पादन ले सकते हैं। हालांकि, एक किसान का कहना है, कि अब तक मैं 35 किलो भिंडी बेच चुका हूं, जिससे 1400 रुपये की आमदनी हुई है।
बतादें, कि बाजार में भिंडी फिलहाल 80 से 100 रुपये किलो बेचा रहा है। अगर एक किसान पूरे सीजन में 100 किलो भिंडी बेचता है, तब उसको हाल ही की कीमत के हिसाब से 8 से 10 हजार रुपये तक की आमदनी हो सकती है। भिंडी की सर्वोच्च विशेषता यह है, कि इसकी फसल बारिश के मौसम में भी खराब नहीं होती है। वैसे तो बारिश होने पर शिमला मिर्च, तोरई, लौकी, खीरा और ककड़ी सहित ज्यादातर सब्जियों के पौधे खराब हो जाते हैं। परंतु, भिंडी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। जितनी ज्यादा बारिश होती है, भिंडी का पौधा भी उतनी ही तीव्र गति से बढ़ती है। इससे पैदावार में भी इजाफा हो जाता है।
भिंड़ी की खेती में कितने समयांतराल पर सिचांई की आवश्यकता होती है
बतादें, कि भिंडी की खेती में 10 से 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में इस प्रजाति की भिंडी की खेती करने वाले किसानों को सिंचाई पर आने वाली लागत से भी राहत मिलेगी। साथ ही, भिंडी को बाकी फसलों के तुलनात्मक खरपतवार भी कम हानि पहुंचाते हैं। हालांकि, इसके उपरांत भी किसानों को खरपतवार की सफाई अवश्य करनी चाहिए।
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बिहार लीची एसोसिएशन के अध्यक्ष बच्चा प्रसाद सिंह ने बताया है कि निर्यात का काम बिहार लीची एसोसिएशन देखेगी, तथा इस काम में किसानों की यथासंभव मदद की जाएगी। उन्होंने बताया कि पहले मुजफ्फरपुर में मात्र एक प्रोसेसिंग यूनिट की व्यवस्था थी, लेकिन अब मांग बढ़ने के कारण सरकार ने जिले में 6 प्रोसेसिंग यूनिट लगवा दी हैं। अगर भविष्य में कोल्ड स्टोरेज और पैक हाउस की मांग बढ़ती है तो उसकी व्यवस्था भी की जाएगी। जिससे किसान बेहद आसानी से अपने उत्पादों को विदेशों में निर्यात कर पाएंगे।
बिहार के कृषि विभाग के अधिकारियों ने बताया है कि इस प्रोजेक्ट को बागवानी मिशन के तहत लॉन्च किया गया है। जिससे किसानों को अपने उत्पादों को मनचाहे बाजार में एक्सपोर्ट करने में मदद मिले। लीची की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने पर 4 लाख रुपये का खर्च आता है, जिसमें 50 फीसदी सब्सिडी सरकार देती है। ऐसे में अगर किसान चाहें तो खुद ही लीची की प्रोसेसिंग यूनिट लगा सकते हैं और खुद के साथ अन्य किसानों की भी मदद कर सकते हैं। उत्पादन को देखते हुए आने वाले दिनों में जिलें में लीची की प्रोसेसिंग यूनिट्स में बढ़ोत्तरी होगी।
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कृषि विभाग के अधिकारियों ने बताया है कि वर्तमान में मुजफ्फरपुर के मानिका, सरहचियां, बड़गांव, गंज बाजार और आनंदपुर में कोल्ड स्टोरेज और पैक हाउस खोले गए हैं। जहां लीची को सुरक्षित रखा जा सकेगा। इनका उद्घाटन आगामी 19 मई को किया जाएगा। किसानों को मदद करने के लिए बिहार लीची एसोसिएशन, भारतीय निर्यात बैंक और बिहार बागवानी मिशन तैयार हैं। ये किसानों को यथासंभव मदद उपलब्ध करवाएंगे, ताकि मुजफ्फरपुर की लीची का विदेशों में बड़ी मात्रा में निर्यात हो सके।
कद्दू की फसल उगाने के लिए कैसी मिट्टी सही रहती है?
किसी भी फसल की तरह कद्दू की खेती के लिए भी उपजाऊ भूमि होना अनिवार्य है और साथ ही भूमि ऐसी होनी चाहिए जिसमें जल निकासी का उचित प्रबंध हो। यह फसल गर्म और ठंड दोनों ही तरह की जलवायु में उगाई जा सकती है। कद्दू की फसल लगाते समय हम एक बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि इस फसल को बाकी फसलों के मुकाबले ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है। फसल में सिंचाई के लिए पानी ज्यादा लगता है लेकिन एक और बात का ध्यान रखने की जरूरत है की फसल में किसी भी समय जलभराव नहीं होना चाहिए वरना यह फसल बर्बाद हो सकती है। कद्दू की अच्छी फसल के लिए जमीन का P.H. मान 5 से 7 के मध्य होना चाहिए |
शीतोषण और समशीतोष्ण जलवायु को कद्दू की फसल के लिए एकदम अनुकूल माना जाता है और यही कारण है कि हमारे देश में कद्दू की फसल बारिश के मौसम में उगाई जाती हैं। गर्मी का मौसम कद्दू की फसल के लिए एकदम सही माना गया है क्योंकि सर्दियों में जब ज्यादा पाला पड़ता है तो कद्दू के फूल अच्छी तरह से बड़े नहीं हो पाते हैं और कई बार झड़कर गिरने लगते हैं। इसके अलावा हमें एक और बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि एक बार जब फसल पर फूल आ जाए तो उस समय बारिश का मौसम नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे फूलों के खराब होने की संभावना बढ़ जाती है। इस फसल के बीजों के बनने के लिए तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना जरूरी है और वहीं पर अगर आप चाहते हैं कि आप की फसल अच्छी तरह से उत्पादन करें तो तापमान 25 से 30 डिग्री के मध्य होना जरूरी है।
कद्दू की फसल की कुछ किस्म
कद्दू की फसल अच्छी हो और उसका उत्पादन सही रहे इसके लिए कद्दू की कई अलग-अलग किस्म तैयार की गई है और आप उत्पादन क्षमता के आधार पर उनका चुनाव कर सकते हैं।
पूसा विश्वास किस्म
भारत में उत्तर भारत के कई राज्यों में यह फसल उगाई जाती है और इसमें एक कद्दू का वजन लगभग 5 किलोग्राम तक पहुंच जाता है। इसमें निकलने वाले फल हरे रंग के होते हैं और साथ ही उन पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे बने रहते हैं। एक बार उगाने के बाद यह फसल लगभग 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है और जमीन में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 40 क्विंटल कद्दू की पैदावार इस किस्म को लगाने के बाद मिल जाती है।
काशी उज्जवल किस्म
उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी यह कैसे उगाई जाती है और इसमें एक कद्दू का वजन ही 10 से 15 किलो तक होता है। इसमें कद्दू के 1 पौधे पर चार से पांच फल आ जाते हैं और प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 550 क्विंटल का उत्पादन इस किसी से हो जाता है। इस फसल को बनने में थोड़ा ज्यादा समय लगता है जो तकरीबन 6 महीने तक हो सकता है।
यह किस्म एक बार उगाने के बाद लगभग 100 से 110 दिन के बीच में पैदावार देती है और इससे उगने वाले फल का रंग भी हरे और सफेद का मिश्रण होता है। इसमें कद्दू का वजन 12 किलोग्राम तक चला जाता है और एक पौधे पर चार से पांच फल आ जाते हैं। अगर पैदावार की बात की जाए तो जमीन में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यह किस्म 400 से 500 क्विंटल की पैदावार दे देती है।
काशी धवन किस्म
कद्दू की यह किस्म ज्यादातर पहाड़ी और पर्वतीय इलाकों में उगाई जाती है और इसे पककर तैयार होने में लगभग 3 महीने का समय लगता है। इसमें कद्दू के फल का वजन 12 किलोग्राम तक होता है और प्रति हेक्टेयर में आप लगभग 600 क्विंटल की पैदावार आसानी से कर सकते हैं।
पूसा हाईब्रिड 1
यह कद्दू की एक हाइब्रिड किस्म है और इसे ज्यादातर वसंत ऋतु के मौसम में उगाया जाता है। इसमें पौधे पर लगने वाले फल का वजन थोड़ा कम होता है जो लगभग 5 किलोग्राम के आस पास होता है और इसमें प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग साढे 500 क्विंटल की पैदावार की जा सकती है।
कैसे करें कद्दू की फसल के लिए खेत को तैयार?
बाकी फसल की तरह ही कद्दू की फसल लगाने से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार करना पड़ता है। सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करने के बाद उसमें पुरानी गोबर की खाद डालकर खेत को थोड़े टाइम के लिए छोड़ दिया जाता है और उसके बाद एक बार और जुताई करते हुए जमीन को भी भुरभुरा कर लिया जाता। उसके बाद जमीन को समतल करते हुए कद्दू की फसल को क्यारियां बनाकर लगाया जा सकता है।
क्या है कद्दू के बीजों की रोपाई का सही समय और तरीका
कद्दू के बीज ज्यादातर किसान अपने हाथ से ही लगाते हैं और प्रति हेक्टेयर जमीन में 3 से 4 किलो बीज लग जाते हैं। | बीजो को खेत में लगाने से पहले उन्हें थीरम या बाविस्टीन की उचित मात्रा का घोल बना कर उपचारित कर लेना चाहिए | इसके बाद इन बीजो की खेत में तैयार की गई धोरेनुमा क्यारियों में रोपाई कर दे | जब आप क्यारियां बनाते हैं तो एक बात का ध्यान रखें कि क्यारियों के बीच में लगभग 4 से 5 मीटर की दूरी रखी जाए और बीजों के मध्य भी एक से डेढ़ फीट तक की दूरी बना कर रखना अनिवार्य है। ऐसा करने से पौधे अच्छी तरह से विकसित होते हैं और फसल भी अच्छी मिलती है।
अगर आप पर्वतीय इलाकों में है फसल उगाना चाहते हैं तो मार्च या अप्रैल के महीने में यह किया जा सकता है और जहां पर सिंचाई कम की जाती है वहां पर यह फसल बारिश के मौसम में जून के आसपास लगाई जाती हैं। इसके अलावा भारत में बहुत सी जगह है यह फसल अगस्त के महीने में भी उगाई जाती हैं। विभिन्न क्षेत्रों में इसे अगस्त माह में उगाया जाता है |
कैसे करें कद्दू के फसल की सिंचाई
कद्दू की फसल में जब बीजों का अंकुरण हो रहा होता है तब उसे ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अगर आप अच्छी तरह से सिंचाई करेंगे तभी आपको अच्छा फल मिलने की संभावना है। जमीन में नमी बरकरार रहे इसीलिए कद्दू के खेत में तीन से चार दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना जरूरी है। इसके अलावा गर्मियों के मौसम में भी एक हफ्ते के अंदर-अंदर इसमें पानी देना जरूरी है। साथ ही अगर आप बारिश के मौसम में है फसल उगा रहे हैं तो जरूरत पड़ने पर ही फसल की सिंचाई करें वरना फसल में पानी ठहर जाने की संभावना बनी रहती है जिसकी वजह से फसल बर्बाद हो सकती हैं।
कद्दू की फसल के लिए कौन से उर्वरक हैं सही?
अगर आप चाहते हैं कि आप की फसल की पैदावार अच्छी हो और साथ ही आपको उन्नत किस्म का फल मिले तो आपको और ध्यान देने की जरूरत। जैसा कि पहले ही बताया गया है कि जुताई के समय खेत में पुराने गोबर की खाद डाली जाती हैं। इसके अलावा जैविक खाद के रूप में कंपोस्ट खाद का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा अगर आप केमिकल खाद का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो 40KG नाइट्रोजन, 50KG पोटाश और 50KG फास्फोरस की मात्रा को खेत की आखरी जुताई के समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़क देना चाहिए|
किसी भी फसल में खरपतवार का नियंत्रण करना बेहद जरूरी है लेकिन कद्दू के पौधों में आपको इसके बारे में ज्यादा ध्यान रखने की जरूरत है क्योंकि यह फसल एक बेल के रूप में पूरे खेत में फैलती है और इसमें ज्यादा खरपतवार होने की संभावना बनी रहती हैं। समय-समय पर फसल में निराई और गुड़ाई करते रहना चाहिए। आप इसे हर 2 से 3 दिन के अंतराल पर कर सकते हैं। इसके अलावा एक बार पौधे के बड़े हो जाने के बाद आप यह प्रक्रिया 10 दिन के अंतराल पर करना शुरू कर सकते हैं।
महोगनी की खेती कैसे होती है
कद्दू की फसल में लगने वाले रोग और उनसे बचाव?
कद्दू की फसल में लगने वाले कुछ रोग इस प्रकार से हैं;
लालड़ी रोग
इस रोग को अंग्रेजी में पंपकिन विटल भी कहा जाता है और अगर एक बार पौधे में यह रोग लग जाता है तो पौधे का विकास होना बंद हो जाता है। यह रोग ज्यादातर पौधे की जड़ों और उसकी पत्तियों को प्रभावित करता है और एक बार यह रोग लग जाने के बाद बत्तियां मुरझाकर सूखने लगती हैं। इसकी रोकथाम ट्राइक्लोफेरान या डाईक्लोरोवास में से किसी एक दवा का उचित मात्रा में छिड़काव करते हुए किया जा सकता है।
फल मक्खी रोग
जैसा कि नाम से ही समझ में आ रहा है यह रोग फसल के फलों को नुकसान पहुंचाता है। इसमें मक्खी फलों के अंदर छेद कर देते हैं और उसमें अंडे देना शुरु कर देते हैं। इसमें आपको फल के अंदर कीड़े नजर आते हैं जो पूरी तरह से फसल को और फलों को बर्बाद कर देते हैं | यह रोग लगने के बाद धीरे-धीरे फल खराब होकर गिरने लगते हैं। कार्बारिल या मैलाथियान का उचित मात्रा में छिड़काव कर इस कीट रोग की रोकथाम की जा सकती है |
सफ़ेद सुंडी रोग
यह रोग जमीन के अंदर से फसल को प्रभावित करता है। सबसे पहले यह रोग पौधे की जड़ों में फैलता है और धीरे-धीरे पौधे को सुखाकर उसे पूरी तरह से नष्ट कर देता है। अगर आप इस रोग की रोकथाम चाहते हैं तो जुताई के समय आप नीम का घोल बनाकर जमीन में डाल सकते हैं।
मोज़ैक रोग
यह एक विषाणु से होने वाला रोग है जिसकी वजह से पौधा पूरी तरह से विकसित होना बंद हो जाता है और अगर किसी तरह पौधे का विकास हो भी जाए तो उस पर आने वाला फल बहुत ही छोटे आकार का होता है। इस तरह के रोग से छुटकारा पाने के लिए मोनोक्रोटोफॉस या फास्फोमिडान का उचित मात्रा में छिड़काव किया जाना चाहिए |
एन्थ्रेक्नोज रोग
यह रोग कद्दू की फसल को बारिश के मौसम में ज्यादा प्रभावित करता है और इस रोग के होने से पौधे की पत्तियां काले और भूरे रंग के धब्बों से भर जाती है। धीरे-धीरे यह सारी फसल में फैल जाता है और पौधे का विकास होना बंद हो जाता है। इस तरह के रोग से बचाव के लिए पौधों पर हेक्साकोनाजोल या प्रोपिकोनाजोल का उचित मात्रा में छिड़काव करे |
फल सड़न रोग
एक बार जब कद्दू की फसल पर फल आ जाते हैं तो कोशिश करें कि उन्हें समय-समय पर पलटते रहे वरना उनमें पल सड़न रोग लगने की संभावना हो जाती हैं। अगर आप इस रोग से बचाव चाहते हैं तो फसल में टेबुकोनाजोल या वैलिडामाईसीन का छिड़काव करना चाहिए |
सामान्यता कद्दू की फसल 100 से 110 दिन के बीच में बनकर तैयार हो जाती है | जब कद्दू हल्के पीले रंग के होने लगे और उसमें बीच-बीच में थोड़ी सफेदी आ जाए तो आप फल को तोड़ सकते हैं। एक हेक्टेयर जमीन पर सामान्यतया 400 क्विंटल तक फसल की पैदावार की जा सकती है और कद्दू मार्केट में 10 से ₹15 प्रति किलो के भाव से बिकता है। ऐसे में किसान एक बार फसल लगाकर लगभग 5 से ₹6 लाख तक की अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं।